मिश्रित नहरू_गांधी परिवार के युवराज और मृतप्राय_कांग्रेस के लुप्तप्राय पूर्व_अध्यक्ष राहुल जी ने आज ट्वीट किया है-
"जुलाई आ गया है, वैक्सीन नहीं आयीं.."
जैसे आज बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित भी यह नहीं बता सकता है कि राहुल जी कब और क्यों "कौन से देश" चले जायेंगे, वैसे ही खुद राहुल भइया भी यह नहीं बता सकते कि उन्होंने कौन सा बयान क्यूं दिया था। वह तो बस ‘'समय बिताने के लिये, करना है कुछ काम..’' वाली मनःस्थिति में आकर कभी-कभी खुद को युवा मानकर ''ट्रायल एंड एरर..'' थ्योरी के तहत कुछ भी लिख या बक देते हैं। उनके लिये प्रधानमंत्री बनना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक समय समय पर बयान देते रहना भी है।
संभव है कुछ विश्वविद्यालय आगामी समय में इस विषय पर शोध करायें कि कोई राजनेता इस दशा में पहुंचकर पप्पू कैसे बन जाता है.? पर राजनीतिक दृष्टि से यह दशा दयनीय अवश्य है और उस राजनेता के लिये तो और भी, जो दिल में एक सौ पैंतीस करोड़ नागरिकों के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखता हो।
अब पता नहीं ट्विटर पर यह प्रश्न राहुल उर्फ पप्पू भइया ने बैठे-बैठे या खड़े-खड़े उगला था, पर मुझे तो यह प्रश्न "दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं.." टाइप का लगा। या शायद जब-जब पप्पू भइया के खर दिमाग में कोई हलचल होती है, वह अकस्मात ही ऐसे प्रश्न उगलने लगते हैं।
अब यह कैसा अद्भुत प्रश्न है और किससे है.? क्या राहुल गांधी को पता नहीं है कि भारत में टीकाकरण कब से चल रहा है.? क्या उन्हें यह पता नहीं कि वैक्सीन टीकाकरण का डाटा केंद्र और राज्य सरकारें रोज जारी करती हैं.? क्या उन्हें नहीं बताया गया कि अब तक देश में टीके के करीब 34 करोड़ डोज दिए जा चुके हैं.? क्या उन्हें पता नहीं कि वैक्सीन टीकाकरण में भारत इस समय विश्व का अग्रणी देश है.? जो जानकारियां सार्वजनिक तौर पर सहज उपलब्ध हैं, वह भी पप्पू_भइया को क्यूं नहीं पता.?
प्रश्न पूछना विपक्ष का अधिकार और राजनीतिक आधार है, पर क्या ऐसे निरर्थक प्रश्न उस अधिकार या आधार को कमजोर नहीं करते.? क्या विपक्ष के वर्तमान दर्शन में ऐसे तथ्यहीन प्रश्न आवश्यक हैं.? लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष आवश्यक है, पर मात्र विरोध के लिये नहीं और शायद हर बात पर विरोध किए बिना भी विपक्ष की भूमिका पूर्ण प्रासंगिकता के साथ निभायी जा सकती है।
हो सकता है कि राहुल के ऐसे बयान हिटलर के उस सिद्धांत पर आधारित हों कि "किसी झूठ को इतनी बार बोलो कि वह सच लगने लगे.." लेकिन इसी रणनीति पर तो राहुल पिछले 7 वर्षों से और कांग्रेस पिछले 20 वर्षों से (मोदी के विरुद्ध) चल रही है। अबतक तो इस नीति के कोई सकारात्मक परिणाम आते नहीं दिखे कि राहुल या कांग्रेस इसे ही बार-बार आजमाते रहें।
बाकी.. अगर अपने बयानों पर चर्चा करवा लेने को ही राहुल राजनीतिक सत्ता की कुंजी समझ रहे हैं, तब तो वह वास्तव में पप्पू ही हो चुके हैं और वह तो ऐसा करके कई बार अदालतों में फंसकर माफी भी मांग चुके हैं। यह ऐसी स्थिति है जिस पर राहुल विचार करें न करें, उनकी पार्टी को अवश्य विचार करना चाहिये।
पता नहीं कांग्रेस और पप्पू_जी कब समझेंगे कि यह 1980 का भारत नहीं है, यह 21वीं शताब्दी है और अब #झूठ पर आधारित प्रश्न-उत्तर या विमर्श 2 मिनट में ही नंगे हो जाते हैं..!
जय_हिंद
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