मैं स्वभाव (और अपनी सेवा प्रवृत्ति से भी) पुजारी टाइप का नहीं हूं, लेकिन ईश्वरकृपा से देश और आसपास लगभग हर देवस्थान के दर्शन कर चुका हूं।
प्रायः हर कहीं मैंने भारतीय वर्णव्यवस्था के इतर एक अलग-'पंडा बिरादरी'-(आप सबको भी दिखी ही होगी) देखी है। देवदर्शन के पहले चाहे-अनचाहे भी आपको इन 'पंडों' को चढ़ावा चढ़ाना ही होगा, नहीं तो आपको देवदर्शन दुर्लभ ही हो जायेगा।
मगर यह भी एक सच्चाई है कि यह पंडा बिरादरी अपने को देवता के भक्तरूप में ही प्रस्तुत करती है, कभी भी स्वयं के देवता होने का दम्भ नहीं भरती है।
दुर्भाग्य से आजकल हमारे 'न्यायमन्दिरों' में 'पंडे' स्वयं को 'देवता' मान बैठे हैं और जिन मंदिरों की 'दान दक्षिणा' से उनके उदर, 'लंबोदर' होते जा रहे थे.. उन्हीं की मर्यादा खंडित करने पर उतारू हैं।
ईश्वर रक्षा करे इन ''पंडा पोषित मंदिरों'' की..
ऊँ शांतिः
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