Tuesday, November 5, 2019

दिल्ली पुलिस बनाम विधि व्यवसायी

दिल्ली #पुलिस_बनाम_वकील प्रकरण अब भयावह होता जा रहा है। कानून से सीधे सीधे जुड़ी (और कहीं न कहीं एक दूसरे की पूरक) दो संस्थायें आपस में उलझी हैं और जनता मूकदर्शक है (हमेशा की तरह)..

पुलिस वाले और वकील दोनों ही हमारे घर से हैं, आपके घर से भी हो सकते हैं। ये समझना जरूरी है कि यह आपस में क्यों उलझ गये.?

यह सच्चाई है कि भारत के हर न्यायालय परिसर में काले कोट वालों की संगठित गुंडई चलती है। इनकी तमाम यूनियन (बार काउंसिल) हैं और अगर व्यक्तिगत कारणों से भी कोई किसी वकील से लड़ पड़े तो उसे प्रोफेशन पर हमला बताते हुए ये संगठन सड़कों पर उतर आते हैं। दूसरी ओर पुलिस कर्मियों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है, उनके तो उच्चाधिकारी भी (पता नहीं किन अज्ञात कारणों/भय से) जायज मामलों में भी उनका सहयोग नहीं करते हैं। ऐसे में अपमान सह कर भी चुप रहने के सिवाय एक पुलिसकर्मी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं होता।

दिल्ली में प्रारंभिक विवाद सिर्फ पार्किंग का था और दो व्यक्तियों के बीच का था। दिक्कत बस यही थी कि उन दोनों का प्रोफेशन अलग अलग था। तब भी, चूंकि दोनों ही कानून से जुड़े प्रोफेशन में थे तो बड़ी आसानी से विवाद का कानून के मुताबिक समाधान निकाला जा सकता था।

लेकिन यहीं पर संगठित और असंगठित होने का फर्क उभर कर आया। संगठित वकीलों ने बार काउंसिल से संपर्क करने या न्यायालय में न जाकर असंगठित पक्ष के साथ मारपीट/आगजनी करते हुए स्वयं न्याय करना शुरू कर दिया, तमाम पुलिस कर्मी पीटे गये और दर्जन भर से ज्यादा पुलिस की गाड़ियां जला दी गयीं।

खैर..ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था। समस्या का समाधान अभी भी सक्षम स्तर से किया जा सकता था, जिसके लिये माननीय उच्च न्यायालय ने मामले में हस्तक्षेप किया और दो पुलिसकर्मियों के तबादले व कुछ सिपाही/एएसआई को तत्काल सस्पेंड करने तथा खुलेआम मारपीट/आगजनी करने वाले वकीलों के विरुद्ध 6 सप्ताह तक कोई कार्यवाही न करने का अद्भुत निर्णय सुना दिया।

मेरी सामान्य बुद्धि तो यही कहती है कि अगर कोई बड़ा दो के झगड़े के बीच आता है, तो वह या तो दोनों में समझौता कराता है या फिर दोष के मुताबिक दोनों को ही सजा देता है। तो अच्छा होता कि माननीय योर आनर द्वारा दोषी पुलिस वालों पर कार्यवाही के साथ तत्समय ही प्रथमदृष्टया दोषी वकीलों के सम्बंध में उचित धाराओं में मुकदमा दर्ज करके कार्यवाही करने के आदेश दिये गये होते।

कल दिल्ली के हजारों पुलिस वालों का गुस्सा यूं ही नहीं भड़क उठा था। सरेआम अपमान, उसके बाद एकतरफा फैसला और उसके बाद सत्ताधारी पार्टी (जिसके गृह मंत्रालय के अधीन दिल्ली पुलिस आती है) के वकील प्रवक्ता द्वारा वकीलों की गुंडई को जायज ठहराने की कोशिश ने भी आग में घी डालने का काम किया।

समस्या आज की नहीं है। भारत की आजादी की लड़ाई में जनता के सभी वर्गों का समान योगदान था लेकिन आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर बैरिस्टर लोगों ने कब्जा कर लिया। उसके बाद पूरी व्यवस्था ही इस तरह की बनायी गयी कि लगातार अनंतकाल तक इनका पोषण होता रहे। वकील संगठित हैं और उनमें से ही कई आगे जाकर जज बनते हैं, इसीलिये वह जजों पर दबाव बनाकर मनमाफिक निर्णय कराने में भी सक्षम हैं। भारत मे वर्तमान में जज पद चंद परिवारों की जागीर बन चुका है और उनके आसपास उन्हीं के नाते-रिश्तेदार वकीलों का गिरोह है जो पूरी व्यवस्था को अपनी मर्जी से नचा रहा है।

भारत में न्याय में देरी सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन आजादी के बाद से आजतक वकीलों के किसी संगठन ने कभी न्याय में देरी के विरोध में कोई विरोध प्रदर्शन किया हो तो बताइये। आखिर इनसे ज्यादा भला इस समस्या के समाधान के बारे में कौन जानता है.? वास्तव में ये वकील नहीं बल्कि सही अर्थों में #विधि_व्यवसायी हैं जो जजों के साथ मिलकर पूरे देश की आम जनता के इंसाफ पर कुंडली मारे बैठे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस केहर ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि वकील अनैतिक फैसले लेने के लिये जजों को धमकाते हैं। दिल्ली की घटना के बाद जस्टिस ढींगरा ने भी स्पष्ट कहा कि वकीलों ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कानून को अपने हाथ में लिया है।

सबको पता है कि (हर बार की तरह) इस मामले में भी पुलिस की हार होगी। पुलिस वाले सरकारी नौकर हैं, अनुशासित बल के सदस्य हैं और उन पर वर्दी की बंदिशें हैं। अधिकांश पुलिस कर्मी निम्न मध्यमवर्ग से आते हैं और नौकरी ही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है, उन्हें जहर का घूंट पीकर भी ड्यूटी पर वापस जाना ही होगा। लेकिन तमाम सत्ता संस्थानों के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिये यह घटना एक #खतरे_की_घंटी जरूर है जिसे जितनी जल्दी सुन-समझ लिया जायेगा, लोकव्यवस्था के लिये उतना ही अच्छा होगा।

No comments:

Post a Comment