लखनऊ का नाम सभी ने सुना होगा और इसके साथ लगे (या लगाये गये) तमगे "नवाबों का शहर" भी सभी को पता ही होगा। तो आज की चर्चा उसी लखनऊ की एक खास न्यामत के बारे में..
लखनऊ की एक बड़ी कालोनी है राजाजी_पुरम.. इसके नाम से ही शुद्ध संस्कृत की सुगंध आती है। यह अलग बात है कि राजाजी पुरम पुराने लखनऊ में है, जहां आज भी (जानबूझकर) संस्कृत क्या हिंदी समझने वाले भी नहीं मिलते हैं..
लेकिन आज की चर्चा की न्यामत यह कालोनी नही, बल्कि इससे कुछ ही दूर स्थित एक ऐतिहासिक पुल है जिसका नाम है- धनिया_महरी_पुल। जो लोग लखनऊ के हैं उन्हें बखूबी पता होगा कि यह पुल कहां है, बाकियों के लिये बता दे रहा हूं कि जब आप लखनऊ में राजाजीपुरम से आलमनगर की ओर बढ़ेंगे तब आपको इस पुल पर चढ़ाई करने का सुअवसर प्राप्त हो जायेगा। पहले यह सिर्फ सड़क पुल था, अब वहां बने रेलवे पुल को भी यही नाम दे दिया गया है।
तो पेश है किस्सा ए धनिया महरी पुल..
लखनऊ के एक नामचीन नवाब हुए थे, नवाब नसीरुद्दीन हैदर। बताते हैं कि उनकी अम्मी साहिबा एक धोबिन हुआ करती थीं, जिन्हें उनके शौहर का इंतकाल होने के बाद नसीरुद्दीन साहब के अब्बा हुजूर नवाब गाजीउद्दीन साहब ने अपने हरम में ले लिया था। उनके नौशे-हरम नसीरुद्दीन साहब हुए, जो धोबी_की_औलाद सुनते हुए कब जवान होकर गद्दीनशीन हो गये पता ही नहीं चला..
नवाब नसीरुद्दीन साहब ने न सिर्फ औरतबाजी में अपने अब्बा हुजूर को मात दी, बल्कि उनसे चार कदम आगे बढ़कर लौंडेबाजी में भी महारत हासिल कर ली। नई उमर के चिकने लौंडे उनकी खास खिदमत में हमेशा शामिल रहते थे..
नवाब नसीरुद्दीन के हरम में तमाम बेगमें और लौंडे होने के बाद भी इन धोबीपुत्र नवाब का नदीदापन खत्म होने का नाम न लेता था, तो एक दिन उन्होंने अपने साईस की लुगाई पर खास नजरे_इनायत कर दी, उसके बाद वो उनकी बेगम_ए_खास हो गई।
नवाब नसीरुद्दीन की ठरक इतने से शांत नहीं हुई, उनकी नजरें रोज कुछ नया ढूंढती रहती थीं। बासी बेगमों से ऊबी उनकी नजरों की इनायत तलाश बेगमों की महरियों पर हुई और उनमें नवाब साहब को नायब हीरे मिल गये- पनिया महरी, दिबाई महरी और धनिया महरी..
फिर क्या था.? ये महरियां तंग चोली और गोटेदार लहंगा पहने ख्वाबगाह से दरबार तक हर कहीं नवाब नसीरुद्दीन की हमसाया हो गईं। इनमें धनिया_महरी उनकी इतनी खास हो गई कि उन्हें रात को सुलाने से लेकर सुबह उठाने तक (कैसे सुलाना और कैसे उठाना, वो आप ही सोचो) की सारी जिम्मेदारी धनिया महरी की ही थी। इतना ही नहीं, नवाब साहब को दस्तरखान भी धनिया का ही चुना हुआ पसंद आता था, बतर्ज- "दिल आया गधी पे, तो परी क्या चीज है.?"
आगे किस्सा कोतह यह है कि एक दिन नवाब नसीरुद्दीन की रंगीन निगाह धनिया की भतीजी पर पड़ गई। नवाब साहब फड़फड़ाने लगे और उस लड़की को अपनी ख्वाबगाह में लाने का जिम्मा धनिया को ही सौंप दिया। नतीजतन धनिया ने धनिया की चटनी में जहर मिलाकर नवाब साहब को चटा दिया और ठरकी नवाब नसीरुद्दीन अपनी प्यारी धनिया महरी के हाथों धनिया की चटनी खाकर दोजख नशीन हो गये..
इतने लंबे चौड़े किस्से में धनिया महरी पुल की बात तो रह ही गई, वो भी बता दे रहा हूं..
धोबिन पुत्र नवाब नसीरुद्दीन ने अपनी ख्वाबगाह तक जल्दी पहुंचने के लिये धनिया के मोहल्ले तक वो पुल बनवाया था, जिसका नाम धनिया महरी पुल पड़ा। आज वहां सड़क और रेलवे दोनों पुल हैं और दोनों का नाम धनिया महरी पुल ही है।
आखिर में एक सलाह:
पुराने लखनऊ के लोग बताते हैं कि धनिया महरी अक्सर ये गाना गुनगुनाती रहती थी-
"ये गोटेदार लहंगा निकलूं जब डाल के, छुरियां चल जायें मेरी मतवाली चाल पे!
तो, कृपया ऐसी गुनगुनाहट से बचे रहें..
🤪🙏
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